Tuesday, August 28, 2007

फिराक के जन्मदिन पर उनकी चार गज़लें

फिराक का जन्म २८ अगस्त १९१३ को हुआ था। उनके जन्मदिन पर उनकी चार गज़लें इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पत्रिका 'बरगद' के सौजन्य से। यह इसके वर्ष १ अंक ४ से ली गयी हैं। आप इस पत्रिका के वार्षिक सदस्य बन सकते हैं। वार्षिक सदस्यता ग्रहण करने के लिये, छात्र-छात्रायें ५० रूपये (पच्चीस रूपये डाक खर्च अतिरिक्त) अन्य १०० रूपये (पचास रूपये डाक खर्च अतिरिक्त) बरगद के नाम ड्राफ्ट द्वारा भेजें। इसमें छपने के लिये रचनायें, सूचनायें व छाया चित्र भी आमंत्रित हैं। पता-
सेन्टर आफ फोटोजर्नलिज्म एण्ड विजुअल कम्युनिकेशन , डेलीगेसी परिसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद-२११००२ e-mail: bargad@rediffmail.com


आंखों में जो बात हो गई है
एक शरहे हयात हो गई है
जब दिल की वकात हो गई है
हर चीज की रात हो गई है
गम से छूट कर यह गम है मुझ को
क्यों गम से नजात हो गई है
जिस शय पर नजर पड़ी तेरी
तस्वीरे-हयात हो गई है
मुद्दत से खबर न मिली दिल की
शायद कोई बात हो गई है
इस दौरे में जिन्दगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
कया जानिये मौत पहले क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है
एक एक सिकत 'फिराक' उस की
देखा है तो जात हो गई है


बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
जिसे कहते है दुनिया कामियाबी वाये नादानी
उसे किन कीमतों पर कामियाब इन्सान लेते हैं
तबियत अपनी घबराती है, जब सुनसान रातों में
हम ऎसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
खुद अपना फैसला भी इश्क में काफी नहीं होता
इसे भी कैसे कर गुजरें जो दिल में ठान लेते हैं
हम आहंगी में भी इक चाश्नीहै इखतेलाकों की
मेंरी बातें बउनवाने - दिगर वह मान लेते हैं
फिराक अकसर बदल कर भेस मिलता है कोई काफिर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं



किसी का यूं तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
यह हुस्नों-इश्क तो घोल है सब मगर फिर भी
हजार बार जमाना इधर से गुजरा है
नई सी हैं कुछ तेरी रहगुजर फिर भी
शबे - फिराक से आगे है आज मेरी नजर
कि कट ही जायेगी यह शाम बेसहर फिर भी
अगर वे बेखुदी-ए-इश्क को जमाना हुआ
फिराक करती रही काम वह नजर फिर भी


एक शबे-गम वह भी थी जिसमें जी भर आये तो अश्क बहायें
एक शबे-गम यह भी है जिसमें ए दिल रो-रोकर सो जायें
अलग-अलग बहती रहती है हर इंसां की जीवन धारा
देख मिलें कब आज के बिछड़े ले लूं , बढ़ के तेरी बलायें
सुनते हैं कुछ रो लेने से जी हलका जो जाता है
शायद थोड़ी बरस कर छंट जायें कुछ गम की घटायें
सबको अपने अपने दुख हैं सबको अपनी अपनी पड़ी है
ए दिले गमगीं तेरी कहानी कौन सुनेगा किसको सुनायें
बातें उसकी याद आती हैं लेकिन हम पर यह नहीं खुलता
किन बातों पर अश्क बहायें, किन बातों से जी बहलायें
रात चली है जोगन बन कर बाल संवारे लट छटकाये
छुपे 'फिराक' गगन पर तारे, दीप बुझे हम भी सो जायें

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस मौके पर इस प्रस्तुति का. साधुवाद.

Devi Nangrani said...

बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है और समय की माँग भी.
जानदार गज,लों को पेश करने के लिये धन्यवाद

देवी नागरानी

Dev said...

etni kubsurat gajal
ki padh kar aanand aa gaya...
http://dev-poetry.blogspot.com/

LAXMI NARAYAN LAHARE said...

bahut sundar .....

मेरे और इस वेब साइट के बारे में

यह सेवा, न्यास द्वारा, हिन्दी देवनागरी (लिपि) को बढ़ावा देने के लिये शुरू की गयी है। मैं इसका सम्पादक हूं। आपके विचारों और सुझावों का स्वागत है। हम और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं पर यह सब धीरे धीरे और इस पहले कदम की प्रतिक्रिया के बाद।