Sunday, August 19, 2007

जिक्र-ए-फिराक गोरखपुरी: तुझे ए जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

"बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं। तुझे ए जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं।" जैसी पंक्तियों को देने वाले फिराक गोरखपुरी की याद किये बिना इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जुड़ी कोई भी बात पुरी हो ही नहीं सकती। उर्दू शायरी को अनमोल कृतियां देने वाले फिराक से जुड़े अनगिनत संस्मरण आज भी लोगों के जेहन में हैं। प्रस्तुत है फिराक की याद करते हुए उर्दू विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रो. ए.ए.फातमी का यह आलेख:

यूं तो फिराक के नाम के साथ गोरखपुर लगा हुआ है और वह पैदा भी गोरखपुर में हुए, लेकिन १९१३ में गोरखपुर से हाई स्कूल पास करने के बाद इलाहाबाद आ गये और फिर यहीं के हो रहे। इलाहाबाद की साहित्यिक व राजनैतिक सरगरमियों ने कुछ ऎसा प्रभावित किया और फिर घेरा कि वह आई.सी.एस. में चुने जाने के बाद भी नहीं गये। उनके ऊपर उस समय शायरी के साथ-साथ वतनपरस्ती का जज्बा हावी था और वह नेहरू व गांधी से बेहद प्रभावित थे। १९२० के आस पास वह इलाहाबाद में नेहरू परिवार के करीब आ चुके थे और बकायदा सियासी जलसों में शरीक होने लगे थे। १९२० में ही जब जार्ज पंचम के वली अहद प्रिंस आफ वेल्स भारत का दौरा करने आये तो गांधी जी के नेतृत्व में इस दौरे का बायकाट किया गया। बहुत से लोग गिरफ्तार कर लिए गये। पंडित नेहरू की गिरफ्तारी के बाद इलाहाबाद में कांग्रेस की सूबाई कमेटी की मीटिंग हुयी, जिसमें फिराक पूरे जोर व शोर से शरीक हुए और गिरफ्तार हुए। उन्हें मलाका जेल ले जाया गया, मुकदमा चला। कुछ कैदी नैनी जेल भेजे गये, कुछ आगरा जेल। फिराक आगरा जेल के कैदियों में थे।

फिराक साल भर से ज्यादा जेल में रहे। जेल में मुशायरे भी होते थे। फिराक ने कई गजलें इसी जेल में कहीं। इनमें यह दो शेर काफी मशहूर हुए-
"अहले जिन्दा की यह महफिल है सुबूत इसका 'फिराक'
कि बिखर कर भी यह शीराजा परीशां न हुआ।
खुलासा हिन्द की तारीख का यह है हमदम
यह मुल्क वकफे-सितम हाए रोजगार रहा।"

जेल में ही उन्होंने हिन्दी में भी कुछ लेख लिखे और छपवाये, इन लेखों व गजलों को पढ़ने के बाद अंदाजा होता है कि उनकी गजलों में सिर्फ इश्को-मोहब्बत ही नहीं समाज और सियासत की बातें भी खूब हैं।
एक साल बाद वह आगरे से लखनऊ भेज दिये गये। जेल से निकलने के बाद फिराक आर्थिक रूप से काफी परेशान रहे। इसी समय नेहरू ने कांग्रेस पार्टी में शामिल होने का निमंत्रण दिया। एक लेख में फिराक खुद लिखते हैं-
"नेहरू ने मेरे हालात को देख कर मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि तुम आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के अण्डर सेक्रेटरी की हैसियत से इलाहाबाद का दफ्तर सम्भाल लो। यह बात १९२३ की है। मैं ढाई सौ रूपये महीने पर आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी का अण्डर सेक्रेटरी हो गया।...”

फिराक १९२३ से लेकर १९२७ तक इस पद पर रहे। इस बीच वह नेहरू परिवार के बहुत करीब आ गये। वह नेहरू के सियासी चिंतन और बौद्घिक व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए और नेहरू को सियासत का जगल गुरू कहने लगे। नेहरू को शायरी का काफी शौक था। अक्सर वह फिराक से शेर सुनते और आजादी के संघर्ष की बातों के माध्यम से भारत के इतिहास व संस्कृति पर विचार विमर्श भी करते। नेहरू के करीब होने से फिराक जो चाहते वह बन सकते थे, लेकिन उन्होंने ऎसा नहीं किया। इस बीच उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से प्राइवेट अंग्रेजी में एम.ए. किया और १९३० में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी विभाग में प्रवक्ता हो गये और पठन पाठन व शेरो-शायरी में डूब गये। पहले इलाहाबाद और अब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में आने के बाद वह जैसे अपने सही पद और रास्ते पर आ गये थे।

३१ दिसम्बर १९३५ में जब प्रेमचंद व जोश आदि के साथ प्रगतिशील लेखक संघ की पहली बैठक हुई तो फिराक भी बराबर से शरीक थे। उनके अतिरिक्त प्रो. एजाज हुसैन, डा. अहमद अली, सज्जाद जहीर, रशीद जहां थे। प्रगतिशील लेखक आन्दोलन में फिराक आगे आगे थे। उन्होंने इसकी कई कान्फ्रेन्सों की अध्यक्षता की और लेख पढ़े। यही वह मोड़ है, जहां फिराक के जेहन में साहित्य व राजनीति घुल मिलकर एक हो गये और उनकी कलम से ऎसे वाक्य निकले-
"हमारा मुल्क हिन्दुओं की मिलकियत नहीं है और मुसलमानों की। यह मुल्क बनी नौ आदम की मादरे-वतन है, आज हमारे सीनों में तहजीब की पहली सुबहें सांसें ले रही हैं। कायनात और इंसानियत की वहदत के तसव्वर से आज भी हमारी आंखें नम हो जाती हैं-”

१९६० के आस-पास वह यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए और १९८२ में वह इस दुनिया से रूखसत हुए। अपनी पचास साल की साहित्यिक व राजनैतिक जिन्दगी में इलाहाबाद से जो रिश्ता रहा वह अपने आप में एक इतिहास है। यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी विभाग के अलावा उर्दू विभाग से रिश्ते, एजाज हुसैन जैसा दोस्त, एहतेशाम हुसैन जैसा शागिर्द, उसके अलावा चाहने मानने वालों की एक भीड़, सैकड़ों खट्टे-मीठे वाकेयात, शहर का काफी हाउस, फिराक साहब के लतीफों व जुमलों से गुलजार रहता। कोई मुशायरा, कोई जलसा फिराक के बगैर हो ही नहीं सकता था।

फिराक साहब कहा करते थे-
"मैं शायरी का एक मकसद यह भी समझता हूं कि जिन्दगी के खुशगवार और नाखुशगवार हालात व तजुर्बात का एक सच्चा जमालियाती एहसास हासिल किया जाय। जिन्दगी का एक विजदानी शऊर हासिल करना वह आसूदगी अता करता है जिसके बगैर जिन्दगी के सुख-दुख दोनों नामुकम्मल रहते हैं। यही एहसास मेरी शायरी के रहे हैं; इसके अलावा हर कौम की अपनी एक तारीख होती है, उसका एक मिजाह होता है, फिर तमाम इंसानियत की जिन्दगी की भी तारीख होती है और उस जिन्दगी की कुछ कदरें होती हैं। कौमी जिन्दगी और आलमी जिन्दगी की इन कदरों और हिन्दुस्तान के कल्चर के मिजाज को अपनी शायरी में समोना मुल्की और आलमी जिन्दगी के पाकीजा जज्बात को जबान देना मेरी शायरी का मकसद रहा है। उर्दू शायरी में बहुत सी खूबियों के बावजूद कुछ कदरो की कमी रही है। १९३६ के बाद मेरी कोशिश यह होने लगी है कि मैं मसायल को आलमगीर इंसानियत की तरक्की की रोशनी में पेश करूं, जिन्दगी जैसी है उसे मुतास्सिर होना कौमी कलचर और कौमी मिजाज के तसव्वर पर झूमना उसे अब मैं नाकाफी समझने लगा। अब दुनिया और जिन्दगी पर झूमने के बदले दुनिया और जिन्दगी को बदलने का तसव्वर काम करने लगा।"

फिराक साहब केवल शायर न थे वह एक दानिश्वर, आलोचक और बहुत अच्छी बातचीत और बहस करने वाले इंसान थे। इलाहाबाद से उनके गहरे सम्बन्ध थे। इलाहाबाद और यूनिवर्सिटी से गहरा प्यार रखते थे और इसीलिये आखिरी सांस तक वह यूनिवर्सिटी के मकान में रहे। यूनिवर्सिटी ने उनको मान तो दिया, लेकिन वह सम्मान न दिया जिसके वे हकदार थे। उर्दू विभाग में तो फिराक पर कई कार्यक्रम हुए, शहर में भी हुए, लेकिन अंग्रेजी विभाग ने कोई याद बाकी न रक्खी। आज इसकी आवश्यकता है कि अंग्रेजी विभाग के सामने फिराक का स्टेचू और विश्वविद्यालय में एक फिराक मेमोरियल चेयर कायम की जाए।


पिछले साल से इलाहाबाद विश्वविद्यालय 'बरगद' के नाम से पत्रिका निकाल रहा है जिसमें इलाहाबद विश्वविद्यालय और इलाहाबाद के बारे में सूचना रहती है। फिराक गोरखपुरी पर यह लेख इस पत्रिका के पहले वर्ष के चौथे अंक से है और यह उसी के सौजन्य से है। इस पत्रिका में छपने के लिये रचनायें, सूचनायें व छाया चित्र आमंत्रित हैं।

इसके वार्षिक सदस्य बनें 'बरगद' की वार्षिक सदस्यता ग्रहण करने के लिये छात्र-छात्रायें ५० रूपये (पच्चीस रूपये डाक खर्च अतिरिक्त) अन्य १००रूपये (पचास रूपये डाक खर्च अतिरिक्त) बरगद के नाम ड्राफ्ट द्वारा इस पते पर भेजें।
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2 comments:

Anonymous said...

फिराक साहब पर इतना अच्छा लेख प्रकाशित करने के लिये धन्यवाद.

R.K.Verma said...

हिन्दुस्तान को जीवित रखने के लिए इन महापुरुषों की जीवनी व उनके अनुभव प्रकाशित करना सराहनीय कार्य है हम आपका सहयोग करने के लिए तत्पर हैं , सराहनीय प्रयास है
धन्यवाद

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यह सेवा, न्यास द्वारा, हिन्दी देवनागरी (लिपि) को बढ़ावा देने के लिये शुरू की गयी है। मैं इसका सम्पादक हूं। आपके विचारों और सुझावों का स्वागत है। हम और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं पर यह सब धीरे धीरे और इस पहले कदम की प्रतिक्रिया के बाद।