(डा. राम लखन सिंह भारतीय वन सेवा में कार्यरत थे। वे टाइगरों के बारे में विशेषज्ञ माने जाते हैं। भारतीय वन सेवा से अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्होंने पर्यावरण और मनुष्य नाम की एक पत्रिका शुरू की है जिसका कि मूल्य १०/-रू. प्रति अंक है। इस पत्रिका में उनके द्वारा लिखा पहला सम्पादकीय तथा इस पत्रिका के कुछ पन्नो के चित्र, उनकी अनुमति से, यहां छापे जा रहे हैं। डा. राम लखन सिंह से इस पते पर सम्पर्क किया जा सकता है, का पता है, डा. राम लखन सिंह, एच. ८३, साउथ सिटी, रायबरेली रोड, लखनऊ-२२६०५ दूरभाष ०५२२-२४४२३२७)
मनुष्य एक असीम ब्रम्हांड का निवासी है। इस ब्रम्हांड में खरबों तारे, तारों के चारों ओर चक्कर काटते ग्रह, ग्रहों के चारों ओर घूमते उपग्रह (चांद), इन सभी के बीच तैरते धूमकेतु उल्कायें और अभी तक नहीं पहचाने जा सके अनगिनत अंतरिक्ष पिण्ड हैं। इन्हीं में एक नन्हा ग्रह है पृथ्वी, जो फिलहाल मनुष्य का निवास स्थल है। क्योंकि इस अनंत ब्रम्हांड में अभी तक पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ज्ञात अंतरिक्ष पिण्ड है, जिसमें जीवन रक्षक पर्यावरण उपलब्ध है।
पृथ्वी के पर्यावरण की जीवनदायी परिस्थितियों के कारण ही यहां लाखों जीव जातियां (स्पीशीज) फल-फूल रही हैं। इन जीव जातियों में वायरस, बैक्टीरिया, फफूंद, पेड़-पौधे, कीट-पतंग, पशु-पक्षी और स्वयं मानव जाति सम्मिलित है।
आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार धरती पर अस्सी लाख से एक करोड़ के बीच जीव-जातियां विद्यमान हैं। यह आश्चर्य की बात है कि हजारों साल पहले भारतीय चिंतकों ने कल्पना की थी, कि मानव जाति में जन्म पाने से पहले जीव को चौरासी लाख जीव-जातियों के चक्र से गुजरना पड़ता है। बाद में डार्विन ने इसे वैज्ञानिक भाषा में कहा था कि जीव-जातियों का विकास एक कोशीय बैक्टीरिया से शुरू होकर खरबों कोशिका वाली मानव जाति तक पहुंचा। अब इक्कीसवीं सदी में सुपर कंप्यूटर की सहायता से प्रमाणित हुआ है कि वास्तव में मनुष्य के ९८.८ प्रतिशत जीन्स चिम्पांजी (बन्दर जाति का सदस्य) के समान है, ६० प्रतिशत जीन्स चूहे के और 0.5 प्रतिशत जीन्स बैक्टीरिया के समान है।
पहले कंप्यूटर नहीं थे, इसलिये मनुष्य शोध कार्य अपनी कल्पना शक्ति (चिंतन) के सहारे करता था। इस दृष्टि से आइन्सटीन का यह कथन विचारणीय है, 'विज्ञान सीमित है, कल्पना असीम। उसमें सम्पूर्ण ब्रम्हांड समाया है।'
सच तो यह है कि आज भी मनुष्य की क्रियाशीलता और रचना-धर्मिता का मूल आधार उसकी कल्पना शक्ति ही है। यदि कल्पना उर्ध्वगामी हुई तो विकास होता है और अधोगामी हुई तो विनाश।
अपनी उर्ध्वगामी कल्पना शक्ति के सहारे मनुष्य पर्यावरण के विभिन्न अंगो को समझने और पोषित करने में लगातार जुटा हुआ है। अभी तक, वह धरती की लगभग १७ लाख जीव-जातियों को पहचान चुका है। इनमें लगभग बीस हजार जीव-जातियों के गुणों का समुचित ज्ञान भी मनुष्य प्राप्त कर चुका है।
पर्यावरण की इन्हीं जीव-जातियों के गुणों का उपयोग करके, मनुष्य, अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए कृषि, बागवानी, पशु-पालन, वानिकी, कीट पालन, मत्सय पालन, उद्योग, औषधि विज्ञान आदि क्षेत्रों में आगे बढ़ सका है। लेकिन धरती के पर्यावरण में पल रही जीव-जातियों के गुणों का लाभ उठाने की दृष्टि से अभी तक मनुष्य का ज्ञान अत्यन्त सीमित है, जब कि सम्भावनाएं अनंत हैं। केवल २० हजार जीव-जातियों के गुणों की जानकारी से जब इतनी प्रगति हो सकी है तब कल्पना कीतिए कि समस्त जीव-जातियों के गुणों का लाभ लेने योग्य होकर मनुष्य कितना आगे पहुंच जायेगा।
जीव-जातियों की ही भांति, पर्यावरण के भौतिक अंगो, जैसे मिट्टी, खनिज तत्व, हवा, पानी, बादल, ओजोन परत, अंतरिक्ष, चांद-सितारों आदि के गुणों की खोज में भी मनुष्य तेजी से जुटा हुआ है। इसके साथ ही मनुष्य अपने शरीर के भीतरी पर्यावरण की समझ भी बढ़ा रहा है। उसके शरीर के भीतर खरबों कोशिकायें, प्रत्येक कोशिका में लगभग तीस हजार जीन्स और कोशिकाओं से अलग केवल विचारों से बना उसका ‘मन’ और विचारों से भी आगे विश्वास पर टिकी उसकी आत्मा मनुष्य को मिनी ब्रम्हांड का रूप प्रदान करता है।
खुशी की बात यह है कि पर्यावरण और मनुष्य के विभिन्न अंगों की नयी जानकारी निरन्तर प्रकाश में आ रही है। इसी आधार पर पर्यावरण विज्ञान का विकास हो रहा है। अनेक विश्वविद्यालयों में एम.एस.सी. स्तर पर पर्यावरण विज्ञान एक स्वतंत्र विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है। लखनऊ विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को पिछले तीन वर्षों से यह विज्ञान पढ़ाते समय मैंने अनुभव किया कि पर्यावरण विज्ञान तो प्रत्येग व्यक्ति का विज्ञान होना चाहिये, क्योंकि सभी व्यक्ति धरती पर रहते हैं, मिट्टी-पानी से उगे अनाज-फल-सब्जी खाते हैं, पशु-पक्षियों के दूध, ऊन, चमड़ा, अण्डे आदि का उपयोग करते हैं, सूरज की धूप सेंकते हैं, चांद-तारों से दिशा ज्ञान प्राप्त करते हैं और एकान्त के क्षणों में अपनी खोज-खबर भी लेते हैं। इसी सोच का परिणाम है इस पत्रिका के प्रकाशन का विनम्र प्रयास।
पर्यावरण को समझने के लिए उसे तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक-मनुष्य का भीतरी पर्यावरण, जो मस्तिष्क, मन और आत्मा से बना है। दूसरा-पृथ्वी का पर्यावरण जो ओजोन पर्त तक फैला है जिसमें सभी जीव-जातियां रहती हैं और तीसरा- अंतरिक्ष का पर्यावरण जो ओजोन पर्त के ऊपर अनन्त ब्रम्हांड तक फैला है, जिसमें चांद-तारे रहते हैं।
मनुष्य के शरीर के भीतरी पर्यावरण को पृथ्वी के पर्यावरण से जोड़ने का कार्य प्राणवायु आक्सीजन करती है और पृथ्वी को अंतरिक्ष से जोड़ने का कार्य सौर ऊर्जा करती है। प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन औसतन बीस लीटर आक्सीजन पृथ्वीमण्डल से लेकर अपनी खरबों कोशिकाओं से कार्य लेता है। बदले में वह कोशिकाओं से निकलने वाली लगभग तीस लीटर कार्बनडाईआक्साइड, प्रतिदिन पृथ्वी को देता है। इसका उपयोग अंतरिक्ष से आने वाली सौर ऊर्जा की सहायता से पेड़-पौधे करते हैं और अनाज –फल-चारा-पत्ती आदि के साथ आक्सीजन भी देते हैं। जब तक मनुष्य, पृथ्वी और अंतरिक्ष में यह लेन-देन संतुलित दशा में है तब तक पर्यावरण और मनुष्य स्वस्थ है। संतुलन बिगड़ा और दोनों अस्वस्थ हुए। अस्वस्थ होने पर मनुष्य को सर्दी-जुकाम-बुखार आता है और पर्यावरण के अस्वस्थ होने पर सूखा-बाढ़-भूकम्प-सुनामी लहरें आती हैं।
पर्यावरण और मनुष्य को स्वस्थ बनाये रखने के लिए सभी देशों में तेजी से शोध कार्य हो रहे हैं। मनुष्य की कोशिकाओं, मन और आत्मा के नये रहस्य खुल रहे हैं, उसकी शारीरिक बीमारियों के इलाज खोजे जा रहे हैं, धरती के नये जीव पहचाने जा रहे हैं और पहचाने जा चुके जीवों के नयु गुण समझ में आ रहे हैं, हवा-पानी-मिट्टी और पेड़-पौधों के बीच रिश्तों का खुलासा हो रहा है। सुदूर अंतरिक्ष से आने वाली ऊर्जा किरणों के नये उपयोग तलाशे जा रहे हैं, अज्ञात अंतरिक्ष पिण्ड प्रकाश में आ रहे हैं और इन सभी खोजों से पर्यावरण के प्रति मनुष्य की समझदारी बढ़ रही है। यह समझदारी मनुष्य की जिम्मेदारी भी बढ़ा रही है। इसी का परिणाम है कि भारतीय संविधान में संशोधन करके सभी नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जिम्मेदार बना दिया गया है।
पर्यावरण एवं मनुष्य के संबंध में जानकारियों के आदान-प्रदान की दिशा में, पर्यावरण विज्ञान की यह द्वैमासिक पत्रिका एक कड़ी बन सके, ऐसा प्रयास रहेगा। पृथ्वी ग्रह पर बिताये गये अपने बासठ वर्ष के जीवनकाल में मैंने इक्कीस वर्ष प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने, तीन वर्ष इविंग क्रिश्चियन कालेज, इलाहाबाद (प्रयाग विश्वविद्यालय) में भौतिक शास्त्र पढ़ाने, उसके बाद पैंतिस वर्ष भारतीय वन सेवा में कार्यरत रहकर देश-विदेश के पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का अध्ययन-संरक्षण करने में बिताये हैं। इसी अवधि में आस्ट्रेलियन नेशनल यूनीवर्सिटी, कैनबरा से शोध कार्य और केन्या-जिम्बाब्वे में वन्य जीवों का सर्वेक्षण करने का अवसर भी मिला। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि आठ वर्षों तक उत्तर प्रदेश के दुधवा राष्ट्रीय उद्यान के संस्थापक निदेशक के रूप में तथा ६ वर्षों तक भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में निदेशक, प्रॉजेक्ट टाइगर का कार्य करने का अवसर मिला। इस पृष्टभूमि में जब प्रधान मंत्री जी की अध्यक्षता में गठित नेशनल बोर्ड फार वाइल्ड लाइफ का मुझे सदस्य नामित किया गया तब नये अनुभव मिले। राजकीय सेवा से रिटायरमेन्ट के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाने और देश-विदेश में हो रही पर्यावरणीय शोध की जानकारी संकलित करने का कार्य, स्वान्त: सुखाय, कर रहा हूं। अध्ययन-अध्यापन-चिंतन के इस दौर में प्राप्त अनुभव और जानकारियों को इस पत्रिका के माध्यम से बांटने में ईश्वर सहायता करे यही प्रार्थना है।
पत्रिका में जानकारियों के प्रेषण में प्रयास यह होगा कि पर्यावरण और मनुष्य के संबंध मजबूत करने वाली सकारात्मक जानकारी सुलभ, करायी जाये। पर्यावरण के संबंध में नकारात्मक बहुत कुछ छप रहा है जबकि सकारात्मक बहुत कुछ खोजा जा रहा है।
आप सभी विद्वान पाठक अपने सकारात्मक ज्ञान और सुझाओं से अवगत करा सकेंगे तो अनुग्रहीत होऊंगा।
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