Saturday, November 18, 2006

प्रो. हरीश्चन्द्र (१९२३-८३)

(२०वीं शताब्दी में दो प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ हुये हैं: इस शताब्‍दी के पहले भाग में रामानुजम तथा दूसरे भाग में हरिश्चन्द्र। हरिश्चन्द्र का जन्म ११ अक्टूबर १९२३ को कानपुर में हुआ था और उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। ऐसा कहा जाता है कि हरिश्चन्द्र ने एम.एस.सी. गणित में प्रवेश इसलिये नहीं लिया क्योंकि उन्होंने बी.एस.सी. में ही एम.एस.सी. गणित की सारी पढ़ाई पूरी कर ली थी। यहां से वे होमी जहांगीर भाभा के साथ कैम्ब्रिज चले गये और वहां से प्रिंक्स्टन विश्वविद्यालय अमेरिका। १९५४ में उन्हें कोल पुरुस्कार से नवाजा गया। उनकी मृत्यु १६ अक्टूबर १९८३ को प्रिंक्स्टन न्यू जर्सी अमेरिका में हो गयी। इनके बारे यहां , और यहां भी पढ़ा जा सकता हैं और इनका चित्र यहां देखा जा सकता है। इलाहाबाद में गणित एवं भौतिक शास्त्र का प्रसिद्ध केन्द्र मेहता रिसर्च इन्सटिट्यूट के नाम से है। इसका अब नाम बदल कर हरीश्चन्द्र रिसर्च इन्सटिट्यूट कर दिया गया है।

प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैइया) इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३९ से १९४३ तक विद्यार्थी, तथा उसके पश्चात१९६७ तक भौतिकी विभाग में अध्यापक रहे। इस बीच उन्होंने जितना इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पाया शायद उससे कहीं अधिक उसे वापस किया। विश्वविद्यालय तो उन्हें छोड़ना नहीं चाहता था पर समाज सेवा का अधिकार शायद अधिक था। १९६७ के बाद, मृत्यु तक वे इसी में संलग्न रहे।

रज्जू भैया और हरिश्चन्द्र बी.एस.सी. और एम.एस.सी. (भौतिक शास्त्र) में सहपाठी थे। Under the banyan tree इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातन छात्रों की पत्रिका है। इसके जनवरी १९९०- अप्रैल १९९० के अंक नम्बर १८-१९ पर हरीशचन्द्र एवं भूतपूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बारे में एक लेख 'अपना विश्वविद्यालय, प्यारा विश्वविद्यालय' नाम के शीर्षक से छपा था। यह लेख रज्जू भैया से की गयी बातचीत पर आधारित था। यहां पर हरीश्चन्द्र के बारे में वही लेख उस पत्रिका के सौजन्य से छापा जा रहा है। अगला लेख भूतपूर्व प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के बारे में रहेगा।

आपको इस लेख या रज्जू भैइया के चित्र को कौपी करने, बांटने, या वीकिपीडिया पर डालने की अनुमति है पर अच्छा हो कि यह करते समय आप इसका श्रेय इलाहाबाद पुरातन छात्र संघ इलाहाबाद या पत्रिका Under the banyan tree को दें या इस चिट्ठी की लिंक दे दें।)

मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिये १९३९ में आया। उस समय देश के कोने-कोने से बड़े लोग पढ़ने के लिये यहीं आते थे। मेरे सहपाठियों में भी रामचरन मेहरोत्रा जो बाद में वाइस चान्सलर रहे और बहुत बड़े केमिस्ट। डा. चन्द्रिका प्रसाद जो कि गोरख प्रसाद जी के लड़के थे, और बाद में रूड़की यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे। डा. हर नारायण और डा. हरिश्चन्द्र भी विद्यार्थी अवस्था में हम लोगों के साथ थे। हमारे गुरूजनों का हम पर बड़ा स्नेह था। हम बड़े खुलकर उनसे बातचीत कर सकते थे। हरिश्चन्द्र जी हमारे प्रदेश के एक इन्जीनियर श्री चन्द्र किशोर जी के सुपुत्र थे। मेरे पिता जी के इन्जीनियरिंग डिपार्टमेण्ट में होने के कारण हम पहले से ही एक दूसरे को जानते थे। हरिश्चन्द्र के भाई साहब सतीशचन्द्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.एस.सी. (फिजिक्स) करके के बाद आई.सी.एस. में आये थे। इसलिए उनसे भी परिचय था।

हरिश्चन्‍द्र से अधिक परिचय उस दिन हुआ जब मैं हॉस्टल में उनसे एक दिन मिलने गया। उन्हें १०४ डिग्री का बुखार आया हुआ था। इस पर भी वह बड़ी भारी गणित कर रहे थे। मैंने उनसे कहा,
'भाई आराम करो।'
उन्होंने कहा,
'कुछ गणित करते रहते हैं तो बुखार का दर्द और ज्वर की अन्य तकलीफें भूल जाता हूँ और अगर आराम करूँगा तो फिर ज्वर की कठिनाइयॉं भी सामने आयेंगी।'
गणित उनका बड़ा प्रिय विषय था। हम लोगों से काफी आगे की गणित वह जानते थे। उन्हें रिलेटिव्टी के सिद्धान्त के बारे में पढ़ने का शौक था और वह इसका अध्ययन करते रहते थे। गणित में हमें जब समस्या होती थी तो हम लोग उनसे पूछ लेते थे। बी.एस.सी. में हम सब पोजीशन होल्डर थे। और फिर हम तीनों विभागों में बँट गये। फिजिक्‍स में हरिश्चन्द्र और मैं एक दूसरे से ऊपर नीचे वाले पोजीशन लिये हुये थे। एम.एस.सी. में हम लोगों के साथ आगरा विश्वविद्यालय का फर्स्ट क्लास फर्स्ट, दिल्ली विश्वविद्यालय का फर्स्ट क्लास फर्स्ट ऐसे अनेक लोग थे। मुझे बहुत प्रसन्नता थी कि एम.एस.सी. के प्रथम तथा अन्तिम साल दोनों में वे प्रथम और मैं द्वितीय रहा। धोखे से अगर कहीं मैं प्रथम आ जाता तो बड़ा मानसिक कष्ट होता।

उस समय हमें पढ़ाने वालों में डा. कृष्णन्न थे। शायद ऐसा पढ़ाने वाला दूसरा हम लोगों ने नहीं देखा। इतने ज्ञानी होने के बाद भी हम लोगों को पढ़ाने के लिए खूब तैयारी करके आते थे। परन्तु फिर भी आधुनिक गणित से उतने अभ्यस्त न होने के कारण हरिश्चन्द्र कभी न कभी उनको परेशानी में डाल देता था। सवाल के हल में कहां कमी रह गयी, उसमें कहां दोष रह गया परन्तु यह बतलाने के कारण से व किसी कारण से वह अप्रिय नहीं था। हमारे कृष्णनन साहब उस पर बड़ा स्नेह रखते थे। सर सी.वी.रमन, कृष्णन्न साहब के गुरू भी रहे थे। इस कारण वह भी आते रहते थे। और उनके भाषण हम लोगों को बहुत ही उत्साहप्रद लगते थे। प्रतिवर्ष उनका आना भी हम लोगों के लिये एक प्रकार का उत्सव जैसे ही था। डा. भाभा भी एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय देखने के लिये आये थे। डा. भाभा एक थ्योरिटीशियन थे। उन्होंने तभी कास्मिक किरणों के सम्बन्ध में भाभा - हिटलर सिद्धान्त निकाला था।उस समय उनकी उम्र ३४-३५ साल की रही होगी। वे एफ.आर.एस. हो गये थे। हमारी लेबोरेटरी एक्सपेरीमेंटल ही थी। उसे देखकर उनको कुछ हेड होने की इच्छा नहीं हुई। इसलिये वे वापस चले गये। उनके लेक्चर भी हुये परन्तु हम लोगों को उनसे अधिक क्षमतावान अपने डा. कृष्णन्न ही लगते रहे।

मेरी एम.एस.सी. की परीक्षा में सर सी.वी.रमन हमारे थ्योरी तथा प्रैक्टिकल के दोनों के परीक्षक थे। थ्योरी का पेपर कुछ कठिन था। प्रोफेसर रमन ने हरिश्चन्‍द्र को १०० में से १०० नम्बर दिये। साथ ही साथ एक भाषण में बाद में कहा, पहले दो विद्यार्थी तो इतना जानते हैं कि जितना मैं भी नहीं जानता हूं। मैंने पहले विद्यार्थी को १०० में १०० दे दिये तो मुझे लगा कि यदि मैं दूसरे को १०० में १०० देता हूं तो शायद लोग समझेंगें कि रमन बुद्धि से कमजोर हो गये हैं। इसलिये दूसरे को मैंने थोड़े कम नम्बर दिये हैं। प्रैक्टिकल में भी बड़ा आनन्द आया क्योंकि मुझे रमन इफेक्ट करने के लिए मिला। प्रो. रमन मेरा इफेक्ट देखने के लिए आये। मैंने एक फोटोग्राफ ले लिया था, उन्हें दिखाया। कृष्णन्न साहब के साथ रहने के कारण मैं थोड़ा हिम्मत वाला भी बन गया था। रमन साहब से कोई इतना डरता या घबराता नहीं था। उन्होंने पूछा क्यों, यह कौन सा पदार्थ है। मैंने कहा ये बेंजीन है। उन्होंने हँसते हुये कहा नहीं यह कार्बन टेट्राक्लोराइड है। तुम कैसे और किस आधार पर कहते हो कि बेंजीन है ? मैंने कहा मुझे प्रो. कृष्णन्न ने बताया है। उन्होंने अट्टाहास करते हुये कृष्णनन साहब को बुलाया और कहा,
'देखों यहॉं एक विद्यार्थी है कि जो तुम पर मुझसे भी ज्यादा विश्वास करता है।'
मेरे लिये फोटोग्राफस को देखकर उनके मन में बड़ा स्नेह उत्पन्न हुआ और उन्होने कहा कि तुम आगे रिसर्च करने के लिये बंगलौर आना चाहो तो तुम्‍हारे लिये खुली छूट है। हरिश्चन्द्र ने थ्योरी का पेपर तो अच्छा किया था परन्तु प्रैक्टिकल में उनके हाथ से ग्रेटिंग गिर गयी थी। वैसे भी वे प्रैक्टिकल फिजिक्स के विशेषज्ञ नहीं थे परन्तु कृष्णनन साहब ने ग्रेटिंग वगैरह फिर से सेट कराके रमन साहब से कहा कि यह हमारे यहॉं का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी है थोड़ा सा हड़बड़ा गया है। रमन साहब ने २-४ सवाल पूछ कर और एक मोटी सी लाइन देखकर उनको अच्छे नम्बर दे दिये।

इलाहाबाद से पास करने के बाद हरिश्चन्द्र डा.भाभा के पास काम करने के लिये गये। मैंने भी कृष्णनन साहब से एक दिन दबी जुबान से रमन साहब के पास जाने की बात की तो कृष्णनन साहब हँसते हुये कहा कि मेरे साथ कौन काम करेगा? फिर मैं इलाहाबाद ही रूक गया। भाभा के साथ हरिश्चन्‍द्र ने उस समय तीन-तीन बड़े अच्छे पेपर्स निकाले जो रायल सोसायटी में छपे। और उन्हीं पेपर्स के आधार पर लेक्चर देने के लिये जब भाभा इंगलैण्ड गये तो वे हरिश्चन्द्र को अपने साथ ले गये कि जिससे अगर किसी विषय पर पूछ-ताछ हो तो हरिश्चन्द्र के साथ उस विषय पर ठीक प्रकार से उत्तर दिया जा सके। वहीं हरिश्चन्‍द्र का सम्बन्ध डिराक से आया। वे उसकी योग्यता से प्रभावित हुये। और उसे अपने साथ इंगलैण्ड में रख लिया। डिराक के साथ वहॉं बहुत कुछ उसने स्वतन्त्र रूप से काम किया। और फिर डिराक के साथ एक लेक्चर में वे अमेरिका चले गये। वहां प्रिक्सटन में पौउली के साथ उनकी छोटी से मुठभेड़ हुई। वह भी बड़ी रोचक है। पौउली ने एक प्रश्न के विषय में कहा कि इसका हल नहीं निकाला जा सकता। हरिश्चन्द्र श्रोताओं में बैठे थे। वे तुरन्त उठकर खड़े हो गये उन्होंने पूंछा
'सर, क्‍या यह बात आप इसलिये कह रहे र्हैं कि इसका हल आप नहीं निकाल पाये।'
पौउली ने हँसते हुये कहा कि
'तुम ठीक कहते हो। न मैं इसका हल निकाल पाया, न ही मैं कोई तरीका जान पाया जिनसे इनका हल निकाला जा सके।'
तीन दिन का सेमिनार था। हरिश्चन्द्र एकदम काम में जुट गये तीसरे दिन वे पहुँचे और पौउली से कहा सर, इस समस्या का हल तो नहीं लेकर आया हूँ पर यदि हम इस तरह से चलें तो मैं समझता हूँ कि इसका हल ढूँढ़ा जा सकता है। उनका तरीका, उनकी योग्यता देखकर पौउली इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने कहा कि क्यों नहीं तुम यहीं प्रिंक्स‍टन में काम करते। और तब से हरिश्चन्द्र जी वहीं प्रिंक्स‍टन में रह गये। और वहॉं अन्त में इन्सटिट्यूट आफ एडवान्स स्टडीज में उन्होंने आइंस्टाइन की पोस्ट प्रोफेसर आफ मैथमेटिक्स प्राप्त की।

भारत के लोग, भारत वापस लौटे, इसकी भी आवश्यकता है। इसलिये सी.एस.आई. आर. के. चेयरमैन जहीन साहब ने हरिश्चन्द्र को भारत बुलाने के लिये थ्योरिटिकल्स इंस्टिट्यूट के डाइरेक्टर के नये पद का सृजन किया। उसके लिये पहले उनको लेक्चर देने के लिये बुलाया गया। चार जगह उनके लेक्चर रखे गये। दिल्ली, बम्बई, मद्रास, कलकत्ता। पर हरिश्‍चन्‍द्र ने स्वयं कहा कि वह इलाहाबाद अवश्य जाना चाहते हैं। मैं उन दिनों इलाहाबाद में भौतिक विभाग का अध्यक्ष था। उनका लेक्चर हुआ। एक तो साधारण लोगों के लिये जिसे हम पॉप्युलर लेक्चर कहते हैं और एक शोध छात्रों के लिये। शोध छात्रों का लेक्चर तो बहुत कठिन था। हरिश्चन्द्र ने मुझसे कहा था कि
‘मैं डायरेक्टर के पद पर भारत नहीं आऊंगा। मुझे प्रशासनिक कार्य करने में बिल्‍कुल रूचि नहीं है और मैं बहुत स्पष्टवादी हूँ। सरकारी अधिकारी बहुत जल्दी नाराज हो जायेंगे।‘
मैंने उसको बहुत मनाया कि यहॉं पर भी उसे काम करने के लिये बुद्धिमान लोग मिलेंगे। आखिर हरिश्चन्द्र तो इसी देश में उत्पन्न हुआ है। परन्तु कुछ अपनी अस्वस्थता के कारण, कुछ झिझकने के कारण वह वापस चला गया। पर देश के प्रति उसकी भावना कम नहीं थी। मुझे स्मरण है कि १९६५ की लड़ाई के समय भारतवर्ष के पास विदेशी मुद्रा की कमी थी उस समय मैंने अपने एक मित्र और शिष्य डा. वी.डी. गुप्ता, जो अभी कुछ दिनों पूर्व गोरखपुर विश्वविद्यालय के वाइस चान्सलर थे तथा उस समय अमेरिका में शोध कार्य कर रहे थे, उनको हरिश्चन्द्र के पास भेजा कि वहां से विदेशी चन्दा इकट्ठा करें। हरिश्चन्द्र से मिलते ही उसने बिना कुछ कहे ही एक हजार डॉलर्स इस काम के लिये दिये और कहा कि अगर और आवश्यकता हो तो और भी ले जाना।

मैं कुछ साल पहले अमेरिका गया था। उस समय उससे बात चीत हुई थी। वे दिल के मरीज थे। मैंने मजाक में कहा,
‘मैंने तो तुम्‍हारे बहुत लेक्चर सुने हैं, तुम भी मेरा लेक्चर सुनने आओ।‘
उसने कहा,
‘मुझे हार्ट की बीमारी होने के कारण डाक्टर ने चलने फिरने को मना किया है। हार्ट बाई पास सर्जरी हो जायेगी तो उसके बाद मैं तुम्हारा लेक्चर सुनने आऊंगा।‘
परन्तु ऐसा दुर्भाग्य देश का, कि एक जादुल्यमान सितारा उसके पूर्व ही तिरोहित हो गया। वह अमेरिका का नागरिक होते हुये रायल सोसाइटी का फेलो बना। किसी विदेशी को फेलोशिप आफ दि रोयल सोसायटी देना एक बहुत बड़ा सम्मान है। उसका काम तो ऐसा नहीं था जो नोबुल पुरस्कार की श्रेणी में आता हो क्योंकि वहां तो समाज के भविष्य के हित में काम आंका जाता है और गणित में नोबुल पुरूस्कार मिलता भी नहीं। पर हरिश्चन्द्र का काम गणित में बड़े उच्च कोटि का था। मुझे कई नोबुल पुरूस्कृत लोगों से मिलने और उनका काम देखने का मौका मिला। मेरा विश्वास है कि हरिश्चन्द्र का काम उसी श्रेणी में आता है। उनकी मृत्यु विज्ञान जगत के लिये और हम भारतीयों के लिये बड़े भारी दुख का विषय है।

2 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

प्रथम टिप्‍पणी इस लिये कि किसी ने रज्‍जू भाइया के बारे मे सुध ली,आप बधाई के पात्र है, दूसरी लेख पढने के बाद

Pramendra Pratap Singh said...

महोदय,
प्रतिभा कभी भी पुरस्‍कार की मो‍हताज नही होती, भारतीय इतिहास(पुरातन एवं वर्तमान) मे कई एसे व्‍यक्तित्‍व न जन्‍म लिया है, जिनको किसी पुरस्‍कार से तुलना करना उनकी प्रतिभा को तुच्‍छता दिखाने के समान है। रज्‍जू भाइया और हरिश्‍चन्‍द्र ऐसे व्‍यक्तितव अादि रहे है।

प्रमेन्‍द्र प्रताप सिंह

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यह सेवा, न्यास द्वारा, हिन्दी देवनागरी (लिपि) को बढ़ावा देने के लिये शुरू की गयी है। मैं इसका सम्पादक हूं। आपके विचारों और सुझावों का स्वागत है। हम और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं पर यह सब धीरे धीरे और इस पहले कदम की प्रतिक्रिया के बाद।