Sunday, October 14, 2007

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और सुभद्रा कुमारी चौहान

इलाहाबाद में महादेवी जी के घर मां का परिचय सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से हुआ था। निराला तब अपनी प्रतिभा से उद्भासित दिग्गज कवि थे और मां तब तक गृहस्थी के चक्कर में फंसी हुयी अपने बच्चों की मां थीं, जो अपने घर और देश सब की चिन्ताओं को अपने ऊपर ओढ़े हुए साहित्य के राजमार्ग को छोड़कर उसकी पगडंडी पर चलने वाली एक साधारण बटोही रह गयी थीं। लेकिन वह परिचय दो साहित्यिकों या दो कवियों का न होकर दो व्यक्तियों का था, जिनमें से एक स्त्री थी, जिसका सहज मातृत्व किसी को भी मां की ममता और बहन का स्नेह दे सकता था। मां ने अपने सामने बैठे हुए उस लम्बे-चौड़े विशालकाय पुरूष के अन्दर छिपे हुए शिशु को पहचान लिया था, जो इसी स्नेह के लिए तरसा हुआ है।

निराला जी का यह चित्र रचनाकार पत्रिका की चिट्ठी 'निराला एवं उनकी परवर्ती कविता में मुक्तिगान' से लिया गया है और इसी के सौजन्य से है।

मुझे सन् ठीक से याद नहीं है, ४३ या ४४ रहा होगा। जबलपुर की किसी साहित्यिक संस्था ने निराला जी को जबलपुर आमंत्रित किया था। उसका सब पत्रव्यवहार मां ने किया था। उन्होंने ही इसका भी इन्तजाम किया था कि जब निराला जी जबलपुर आयें, तो उन्हें पांच सौ रूपये की थैली देकर उनका सम्मान किया जाय। होली के आस-पास का समय था, जब निराला जी जबलपुर आये। उनके ठहरने का प्रबन्ध हमारे पड़ोसी एक साहित्य-प्रेमी धनी व्यक्ति के यहां किया गया था। उन दिनों निराला जी के मन का सन्तुलन जरा बिगड़ा हुआ था। वे जबलपुर शाम के समय पहुंचे। नहा-धोकर गीले बदन ही वे केवल एक धोती पहनकर कमरे में आ गये। कमरा आदमियों से भरा था और उसमें पूरी तेजी से पंखा चल रहा था। पंखे के नीचे निराला जी ठण्ड से झुरझुराते बैठे रहे। न तो उन्हें ही सूझा और न किसी और को उनसे यह कहने की हिम्मत पड़ी कि आप बदन पोंछकर कुछ पहन लीजिए। मां जब घर आयीं, तो बताने लगीं कि बेचारे निराला जी ठण्ड से कंपकंपाते बैठे रहे पर बदन पर कुछ डाल लें, यह उन्हें नहीं सूझा। उन्हें तो किसी ऎसी स्त्री की जरूरत है, जो मां-बहन के समान उनकी जरूरतों को समझकर उनकी फिकर रख सके। एक तो निराला जी का लम्बा-चौड़ा भव्य व्यक्तित्व, दूसरे उनकी कुछ असन्तुलित मन:स्थिति, इन सब से शायद मां भी हिचक गयी होंगी, वर्ना उनका जैसा उन्मुक्त और स्नेही स्वभाव था वे पहले निराला जी को तौलिया देतीं कि 'लो, इससे बपना बदन पोंछ लो' और फिर कुर्ता पहनने को दे देतीं।

निराला जी अपने इस प्रवास में दो-तीन बार हमारे घर आये। काका तब तब जेल में थे। बैठने के कमरे में पूरे फर्श पर गद्दा बिछा हुआ था। निराला जी को वहां बिठाकर मां चौके में खाने का इन्तजाम करने गयीं। निराला जी ने अलमारी खोलकर उसमें से चुन-चुनकर अपनी पुस्तकें निकाल लीं और लेटकर पढ़ने लगे। पढ़ते-पढ़ते खुश होकर निराला जी कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लोट लगाते। इतने बड़े कवि और ऎसे भव्य व्यक्तित्व वाले आदमी से हम भाई-बहन यों ही आतंकित थे, उन्हें इस तरह की चेष्टाएं करते देखकर हम सब सहमे हुए दूसरे कमरे से झांक-झांककर देखते रहे। निराला जी की वह खुशी एक बच्चे जैसी खुशी थी, जिसे अपना कोई काम बहुत अच्छा लगा हो। वह और कुछ भी नहीं था क्योंकि मां जब वापस कमरे में आयीं तो उनसे वे ठीक से बात करने लगे। पर यह भी ठीक है कि वे अनर्गल बातें भी करते थे। पता नहीं यह कैसी ग्रन्थि थी पर जब बहुत से लोग उनसे मिलने आ जाते तो वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर और जवाहरलाल नेहरू के परिवार से नीचे कोई और बात नहीं करते थे। बड़े दुख की बात है कि निराला जी के मन की इस ग्रन्थि को सद्भावना-पूर्वक समझकर उसका उपचार करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। इसी प्रसंग में मुझे बपने अनुभव की एक-दो घटनाएं याद आती हैं, जिनसे इस बात पर रोशनी पड़ती है कि यदि उन्हें केवल निन्दा या केवल स्तुति का पात्र न बनाकर एक सहज मानवीय धरातल पर उनको समझने का यत्न किया गया होता तो उनकी बहुचर्चित विक्षिप्तता की व्याधि का समाधान खोज लेना बहुत कठिन न होता।
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फिर शायद सन् १९४७ में काशी विश्वविद्यालय में निराला जी की स्वर्ण जयन्ती मनायी गयी। उसमें मां भी आमंत्रित थीं। एक तो मां निराला जी को बहुत मानती थीं, दूसरे मैं बनारस में ही रहती थी। ...

विश्वविद्यालय के आयोजन से लौटकर मां ने उस के बारे में मुझको बताया कि किस तरह निराला का सम्मान किया गया। लोगों ने उन्हें रेशम का कुर्ता, जरी के काम का उत्तरीय और बढ़िया महीन धोती पहनाकर बिलकुल दूल्हा बना दिया। फिर कुछ सोचकर बोलीं कि 'हो सकता है दूसरे ही दिन निराला जी सब कुछ उतारकर किसी को दे दें। इससे तो अच्छा होता कि उन्हें चार जोड़ी सादे कपड़े बनवा देते, जो कुछ दिन उनके काम तो आते।' उसके दूसरे दिन हम लोगों ने निराला जी को सड़क पर से जाते देखा। उनके वे कपड़े जब से पहने गये थे शायद बदन से उतरे नहीं थे। सारे कपड़ों में सलवटें पड़ी थीं, बाल उलझे से थे। पैर की चप्पल पहनना वे शायद भूल ही गये। आसपास से बेखबर कहीं चले जा रहे थे।

मिला तेज से तेज
सुभद्रा कुमारी चौहान -बचपन, विवाह।। जबलपुर आगमन, मुश्कलें, और रचनायें।। जीवन की कुछ घटनायें।। महादेवी वर्मा।। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला।।

(सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। हम इसी पुस्तक के कुछ अंश, हंस प्रकाशन के सौजन्य से प्रकाशित कर रहें हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की सारी रचनायें 'सुभद्रा समग्र' में हैं।

इन दोनो पुस्तकों को हंस प्रकाशन १८, न्याय मार्ग, इलाहाबाद दूरभाष २४२३०४ ने प्रकाशित किया है। 'मिला तेज से तेज' पुस्तक के पेपरबैक प्रकाशन का मूल्य ८० रूपये और हार्ड कवर का मूल्य १६० रूपये है। 'सुभद्रा समग्र' पुस्तक के हार्ड कवर का मूल्य ३५० रुपये है। इन दोनो पुस्तकों को आप हंस प्रकाशन से पोस्ट के द्वारा मंगवा सकते हैं।)

2 comments:

इन्दु पुरी said...

niralaji ke baare me pdhkr dukh hua......nhi likhungi.kuchh log apni msti me iis kadar jiite hain ki khud ka hosh nhi rhta.alg hi duniya hoti hai unki aur hm????? sb ho gujrne ke baad sochte hain ki.......aisa hota. nirala nirale hi the.
itna pyara blog aur meri njron se chook gya !itne din duur rha.afsos hai is baat ka mujhe

शारदा अरोरा said...

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