Sunday, April 20, 2008

अवर अर्थ - भू-प्रदूषण

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इस पत्रिका का हिन्दी भाग भी है जिसमे दिसम्बर २००७ के अंक में भू-प्रदूषण नामक एक लेख निकाला गया है। इसे श्री राघव शैलेन्द्र कुमार सिंह ने लिखा है। यह लेख इस पत्रिका के सौजन्य से है।

भू-प्रदूषण (Land Pollution)
भूमिका
भूमि शब्द के अन्तर्गत मृदा तथा स्थलाकृति का समावेश होता है। किन्तु वृहद दृष्टिकोण से देखा जाये तो इसमें किसी स्थान विशेष के समस्त भौतिक लक्षण सम्मिलित किये जा सकते है। पृथ्वी के धरातल का लगभग १/४ भाग भूमि है, पर वर्तमान में इसका लगभग आधा भाग ध्रुवी क्षेत्रों, मरूस्थलों तथा पर्वतों के रूप में होने से मनुष्य के आवास योग्य नहीं है। यद्यपि मानव ने भूमि की संरचना में परिवर्तन लाने की क्षमता प्राप्त कर ली है, परन्तु यह अभी छोटे पैमाने पर ही सम्भव है। सहारा तथा गोबी जैसे बड़े मरूस्थलों तथा उत्तरी अफ्रीका जैसे सूखे भू-खण्ड़ो को आवास योग्य या उपजाऊ भूमि में रूपान्तरित करना अभी भी मनुष्य के सामर्थ्य के परे की बात है।

इस प्रकार वर्तमान पृथ्वी का केवल २८० लाख वर्ग मील क्षेत्र ही आवास तथा खेती योग्य भूमि है। एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के भरण-पोषण के लिए २१/२ एकड़ भूमि से उत्पादित उत्पादों की आवश्यक्ता होती है। मानव की तीव्र गति से बढ़ती ह़ई जनसंख्या तथा प्रति व्यक्ति द्वारा उपभोग में लायी जाने वाली भौतिक सामग्री की आवश्यक्ता में बढ़ोत्तरी को देखते हुए यह उपलब्ध भूमि अल्प नहीं तो बहुत अधिक भी नहीं कहीं जा सकती है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि पृथ्वी पर योग्य भूमि सीमित है। अत: इसके प्रति हमारा व्यवहार समझदारी पूर्ण होना चाहिए। यद्यपि भूमि को पहले से ही बहुत महत्व दिया जाता रहा है तथापि पृथ्वी की अन्य परिघटनाओं की तुलना में भूमि के बारे में हमारा ज्ञान अल्प ही है। मनुष्य ने इसे हमेशा अजीवित सम्पत्ति माना है। मनुष्य ने हमेशा इस तथ्य की उपेक्षा की है कि पृथ्वी एक जीवित इकाई है तथा इसके प्राकृतिक साधनों की क्षमता सीमित है।

भू-प्रदूषण के स्रोत (Sources of Land Pollution)
भू- प्रदूषण की समस्या यथार्थ में ठोस अपशिष्ट के निक्षेपण (disposal) की समस्या का ही दूसरा नाम है। पर बृहद दृष्टिकोण से इसके अन्तर्गत मृदाक्षरण, मृदा का विभिन्न स्त्रोतों से रासायनिक प्रदूषण ,भू-उत्खनन इत्यदि समस्त मानवकृत तथा प्राकृतिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप भूमि के आधारभूत गुणों में होने वाले परिवर्तनों का समावेश किया जाता है।

इस प्रकार भू- प्रदूषण के निम्न मुख्य स्रोत हो सकते है:
  1. घरेलू अपशिष्ट (Domestic wastes)- घरेलू अपशिष्ट के अन्तर्गत मुख्यत: सूखा कचरा तथा रसोई का गीला जूठन सम्मिलित होतें है। सूखे कचरे मेंं झाड़न-बुहारन के फलस्वरूप एकत्रित धूल, रददी कागज, गत्ता, लकड़ी पत्तियाँ, काँच या चीनी मिटटी के टूटे बर्तन , शीशियाँ ,टीन के डिब्बें ,चूल्हें की राख, कपड़ों के टुकडें इत्यदि होते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ बड़ी वस्तुयें भी इसमे शमिल की जा सकती है। जैसे टूटे फर्नीचर ,बिगड़े हुए उपकरण मोटर गाड़ियों के निरर्थक अवयव, टायर इत्यदि । रसोईघर से निकले पदार्थो से सब्जियों , दालें फलों के छिलके, सड़े-गले फल, सब्जियों के डंठल, फलों की गुठलियों, चाय की पत्तियाँ अंडों के छिलके तथा खाने के उपरान्त बची जूठन सम्मिलित होते है। घरेलू अपशिष्ट की प्रति व्यक्ति मात्रा आर्थिक स्थिति तथा सामाजिक विकास पर निर्भर करती है। अत: भिन्न- भिन्न देशों मे इसका औसत भिन्न- भिन्न होता है। उदाहरणार्थ , अमेरिका में घरेलू अपशिष्ट का औसत ५० किलोग्राम/ व्यक्ति/ दिन है। हमारें देश में शहरी आबादी (लगभग २० करोड़ ) द्वारा उत्पन्न ठोस अपशिष्ट की मात्रा ५ करोड़ टन प्रतिवर्ष आँकी गयी है। इस हिसाब से पूरे देश में बहुत बड़ी मात्रा में ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता होगा क्योंकि देश की गुल जनसंख्या शहरी आबादी का लगभग पाँच गुना है।
  2. नगर पालिका अपशिष्ट (Municipal Wastes): नगरपालिका अपशिष्ठ के अन्तर्गत घरों से निकाला कूडा-कर्कट तथा मानव मल (Human excreta), बाजार विशेष कर सब्जी मार्केट मे यत्र-तत्र फेंके गये फलों और सब्जियों का कचरा ,विभिन्न औद्योगिक संस्थाओं का कूड़ा, बाग- बगीचों का वानस्पतिक कचरा, पशु शालाओं का चारा मिश्रित गोबर,लीद सड़कों नालियों व गटरों से निकाला कचरा तथा कीचड़, वधशालाओं, खटिक की दुकानों (Butcher's shop),मछली बाजार, कुक्कुट पालन केन्द्रों तथा चर्म शोधन संस्थानों इत्यदि सभी प्रकार के अपशिष्ट का समावेश किया जा सकता है।
  3. औद्योगिक अपशिष्ट -अत्याधिक औद्योगीकृत देशों में घरेल तथा नगरपालिका व्यर्थ कुल ठोस अपशिष्ट का अंश भर होते है। वहाँ के मुख्य अपशिष्ट तो औद्योगिक व्यर्थ ही होते है। इन अपशिष्ट में कुछ थोड़े - बहुत जैव अपघटनशील, कुछ ज्वलनशील, विषैले, कुछ दुर्गन्धयुक्त तथ कुछ अक्रियाशील होतें है, परंतु सभी स्थान घेरते हैं अधिकांशत: किसी न किसी रूप में भू-प्रदूषण का कारण बनते है। औद्योगिक अपशिष्ट के निक्षेपण की समस्या आर्थिक सीमाओं के कारण और भी जटिल हो जाती है। उद्योग प्रबंधकों के दृष्टिकोण में औद्योगिक अपशिष्ट को बिना समुचित उपचार के उपलब्ध भूमि पर यूँ ही फेंक देना या गडढे खोद कर विमज्जित कर देना कम खर्चीला तथा अधिक सुविधाजनक होता है। यही कारण है कि औद्योगिक क्षेत्रों के आसपास उपलब्ध भूमि पर जगह-जगह अपशिष्टों का ढेर बढ़ता जाता है।
  4. कृषि अपशिष्ट (Agricultural Wastes)- खेतों में फसलों की कटाई के बाद बचे पत्ते, डंठल, घास-फूस,बीज इत्यदि मुख्य कृषि व्यर्थ के जा सकते है। साधारणत: इनसे कोई गंभीर प्रदूषण नहीं होता क्योंकि पौधों के ये अवशेष मिटटी मे मिलकर जैविक क्रियाओं द्वारा स्वत: ही अपघटित हो जाते है। समस्या तो तब उत्पन्न होती है जब खेतों पर इनका अनावश्यक ढेर लगा दिया जाता है । वर्षा के जल से यह कार्बनिक मलवा सड़ने लगता है तथा प्रदूषण का कारण बनता है। खेतों में प्रयोग में लायी जाने वाली खादों , कीटनाशियों तथा पेस्टनाशियों से भी भू-प्रदूषण होता है।
  5. रासायनिक अपशिष्ट (Chemical Wastes)- उद्योगों द्वारा भूमि पर यूँ ही फेंक दिये गये व्यर्थों में अनेक प्रकार के रासायनिक पदार्थ होते हैं जो भू-प्रदूषण करते है। कभी-कभी दुर्घटनावश या अनभिज्ञनतावश कई रासायनिक पदार्थ मृदा मं जा मिलते है। ये प्रदूषक तत्व घरेलू नालियों के जल , वाहित जल या भूमिगत जल में जा मिलते है। इस जल से खेतों या सब्जियों के बगीचों की सिंचाई किये जाने के कारण फल , सब्जियों, विभिन्न प्रकार के अन्न तथा दालें मनुष्य को अनेक प्रकार से हानि पहुँचाते है।
खनिज पदार्थों के अपक्षरण, अकार्बनिक पदार्थों के सड़ने एवं निम्नीकरण के फलस्वरूप मृदा में अनेक घुलनशील कार्बनिक तथा अकार्बिनक रासायनिक पदार्थ प्राकृतिक रूप से विद्यमान रहते है। इनमें से अधिकांश सूक्ष्म जैविक क्रिया के द्वारा अकार्बिनक आक्साइडस में आक्सीकृत हो जाते हैं। पर कुछ कार्बिनक यौगिक आक्सीजन रहित भूमिगत जल में मिल जाने के कारण पूर्णरूप से आक्सीजन नहीं हो पाते हैं तथा जन प्रदूषण का कारण बनतें है।

फसलों की पैदावर बढ़ाने के लिए खेतों मे तरह -तरह की खादें डाली जाती है। ये खादें विभिन्न रासायनिक पदार्थो की बनी होती है। इसके अशुद्व मदार्थ मृदा को संदूषित करतें है। इसके अतिरिक्त औद्योगिक अपशिष्ट एवं संश्लिष्ट कार्बनिक रसायनों द्वारा प्रदूषित जल का खेतों औश्र बगीचों में सिंचाई हेतु प्रयोग भी मृदा के रासायनिक प्रदूषण का कारण बनता है।

इसके अलावा, मृदाक्षरण से भी भूमि की प्राकृतिक संरचना परिवर्तित होती है तथा उपयोगीं भूमि नष्ट होती है, अत: इनका समावेश भू-प्रदूषण के अन्तर्गत किया जा सकती है। गुरूत्व , वायु जल इत्यदि के समन्वित बल के प्रभाव के फलस्वरूप भूमि के कटाव की प्रक्रिया मृदा -क्षरण कहलाती है। दूसरे शब्दों में मृदा -अपरदन एक ऎसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मृदा कण बाहरी कारकों (हवा या बहते जल) के प्रभाव से एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित हो जातें है। इस प्रकार भूमि का ऊपरी ऊपजाऊ भाग अनायास ही नष्ट हो जाता है।

मृदा क्षरण प्रकृति में चलने वाली एक अत्यन्त धीमी प्रक्रिया है, परन्तु इसके परिणाम अत्याधिक दूरगांमी तथा व्यापक होते है। मरूस्थल, कृषि अयोग्य बड़े -बड़े भूखण्ड, वनस्पतिरहित पहाड़ी क्षेत्र मृदा क्षरण के ही परिणाम है। प्राकृतिक रूप से होने वाले भूक्षरण की गति को बढ़ाने में मानव का अवैज्ञानिक रूप से बड़ा हाथ रहता है। अत्याधिक कृषिकरण, वनों के विनाश , पशुओं , द्वारा अत्याधिक चारण से भी भूक्षरण बढ़ता है। इन सभी कारणों से उत्पादनशीलता कम होती है तथा वनस्पति आवरण कम होता जाता है। पौधों की कमी के फलस्वरूप भूमि में मृदा को बाँध कर रखने वाले जड़ तंत्रों की अनुपस्थिति से मृदा क्षरण अधिक होता है।

भू-प्रदूषण के दूष्प्रभाव (Harmful Effects of Land Pollution)
भू-प्रदूषण से होने वाले अनेकानेक दुष्प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते है। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-
  1. कूड़े -करकट से जहाँ एक ओर गंदगी तथा दुर्गन्ध फैलती है, वहीं दूसरी ओर मच्छर, मक्खी, कीड़े -मकोड़े तथा चूहों का उत्पात भी बढ़ता है। यही नहीं, गंदगी में विभिन्न प्रकार की बीमारियों के कीटाणु भी तेजी से पनपते है। पेचिश, प्रवाहिका, आंत्रशोध, हैजा, मोतीझरा, आँखों के रोग विशेषकर नेत्र श्लेषमा शोध (Conjunctivitis) एवं तपेदिक रोगों के कीटाणुओं के प्रसार को गंदगी से बढ़ावा मिलता है।
  2. मानव मल का नि कासन तथा निक्षेपण यदि समुचित ढंग से न हो तो इससे जन स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट पैदा हो जाता है। मानव मल से जहाँ एक ओर वातावरण दूषित होता है, वहीं दूसरी ओर अनेक प्रकार के रोगों का प्रसार भी होता है। टाइफायड, पैराटाइफायड, आंत्रशोध, पेचिश , हैजा, संक्रामण यकृत शोध, पोलियो इत्यदि बीमारियाँ अपर्याप्त मल व्यवस्था के फलस्वरूप फैलती है।
  3. घरों से निकलने वाले व्यर्थ जल की समुचित व्यवस्था न होने पर यह जल घरों के बाहर सड़कों तथा गलियों में यों ही बहा दिया जाता है। इससे कीचड़ तथा दलदल बन जाते है जिनमें मक्खी, मच्छर व अन्य कीड़े-मकोड़े पनपते है।
  4. आजकल कहीं-कहीं खेती में मल -जल द्वारा सिंचाई की जाती है। पर मल-जल के लगातार प्रयोग से मृदा के छिद्रो की संख्या लगातार घटती चली जाती है। एक अवस्था ऎसी आती है जब मल-जल के ठोस कणों के जम जाने के कारण मृदा पूर्णरूपेन (clog) हो जाती है। इस अवस्था तक पहुंचने के बाद वायु मृदा के छिद्रों से परिसंचरित नहीं हो पाती है। मृदा में उपस्थि सूक्ष्म जीवों की वायुश्रवसन क्रियायें जारी नही रह पाती है। इस अवस्था में भूमि की प्राकृतिक मल-जल उपचार क्षमता पूर्णत: नष्ट हो जाती है।
  5. विभिन्न प्रकार के अपशिष्ट के निक्षेपण में विभिन्न सफाई व्यवस्थाओं के रख-रखाव पर बहुत खर्च आता है। इसके अतिरिक्त निकास नालों के अवरूद्व होने या सफाई कर्मचारियों द्वारा हड़ताल किये जाने पर स्थिति बहुत गंभीर हो जाती है।
  6. बहुधा ठोस अपशिष्ट को निक्षेपण हेतु भूमि में निमज्जित कर दिया जाता है। इससे एक तो अनवीनकरणी (non-renewal) धातुओं विशेष कर ताँब, जिंक , लेड इत्यदि की प्रभावकारी हानि होती है तथा दूसरे विजातीय तत्वों के समावेश से मृदा की प्रकृति में परिर्वतन आता है।
भू-प्रदूषण नियंत्रण के उपाय:
  1. अपशिष्ट पदार्थो का समुचित निक्षेपण किया जाना चाहिए। विभिन्न अपशिष्टों का निक्षेपण अनेक विधियों के समन्वय द्वारा सन्तोषप्रद ढंग से किया जा सकता है।
  2. नागरिकों को चाहिए कि वे अपने घरों का कूड़ा-कचरा सड़क पर न फेंक कर इस हेतु स्थापित कचरा पात्रों में ही फेंके। गाँवों में जहाँ नगरपालिका सेवायें उपलब्ध नहीं हैं, कूड़े -कचरे का निस्तारण खाद के गडढों में करना उचित होगा।
  3. नगरपालिका तथा नगर निगम इत्यदि संस्थानों के अधिकारियों को चाहिए कि वे अपशिष्ट निक्षेपण को समुचित प्राथमिकता दें। कूड़े-करकट के संग्रहण (Collection), निष्कासन (removal), तथा निस्तारण (disposal) का प्रबन्ध चुस्त होना चाहिए।
  4. नगरपालिका को चाहिए कि वह नगर अथवा शहर के कुछ संस्थाओं को कम्पोस्टिंग हेतु जगह-जगह संयंत्र लगाने पर प्रोत्साहित करे। अस्वच्छ शौचालयों को सम्प्रवाही (flush type) स्वच्छ शौचालयों द्वारा विस्थापित किया जाना चाहिए। इससे जहाँ मानव द्वारा मलवाहन किये जाने की सामाजिक व्यवस्था को निराकरण होगा, वहीं दूसरी ओर स्वच्छता भी बनी रहती है।
  5. औद्योगिक संस्थानों को अपने अपशिष्ट पदार्थो को बिना पर्याप्त उपचार के विसर्जित करने से रोका जाना चाहिए तथा उनके द्वारा अपशिष्ट पदार्थो के निक्षेपण की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
  6. कृषि कार्यो में ऎसे आदर्श रसायनों का प्रयोग किया जाना चाहिए जिनका मृदा में जैविक विघटन सुगमतापूर्वक हो सके। स्थायी प्रवृत्ति के कार्बनिक रसायनों विशेष कर डी.डी.टी. , लिण्डेन, ऎल्ड्रिन तथा डील्ड्रिन इत्यदि के प्रयोग पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए अथवा इसका प्रयोग बहुत कम किया जाना चाहिए।
  7. मृदा क्षरण तथा भू-उत्खनन से होने वाले मृदा हास को कम करने के उपायों को अमल में लाया जाना चाहिए।
  8. नागरिकों में सफाई के प्रति जागरूकता जगा कर शहरों में यत्र-तत्र बढ़ रहे कचरे के ढेरों की समस्या से निपटा जा सकता है।
  9. मनुष्यों को ठोस अपशिष्ट के फलस्वरूप बढ़ते भू-प्रदूषण की समस्या को सुलझाना होगा अन्यथा इसके परिणाम बड़े गंभीर होंगें । हमें आज स्वयं से ही यह प्रश्न पूछना होगा कि विभिन्न प्रकार के उपादानों को जिनको कि हम आज के इस अति भौतिक युग में प्रयोग कर रहे हैं, क्या उनका उत्पादन करना आवश्यक भी है?

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